Meri aawaj

Meri aawaj

Sunday, November 28, 2010

कैसी इस सफ़र की शुरुवात

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कैसी इस सफ़र की शुरुवात की है मैंने
दुश्मनों के शहर में हर रात की है मैंने

किया है खून उसने मेरे अमनो-पहल का
जब भी रकीब से प्यार की बात की है मैंने

चमक उठती है सोते में पलके ये हमारी
ख्वाबों में जब उससे मुलाकात की है मैंने

आंसू नहीं बचे जब रो-रो के रात-दिन
तब आँखों से खून की बरसात की है मैंने

उसकी यादों का तीर जब सीने पे लगा है
तब एक नई ग़ज़ल की शुरुवात की है मैंने

-अभिषेक
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Saturday, November 27, 2010

पेड़ का सन्देश

मैं एक पेड़ हूँ मानव से मेरा सदियों का नाता है |
जब से उसका अस्तित्व हुआ मुझसे प्यार पाता है ||

मैं ही इस धरती को हरदम प्राण वायु देता हूँ |
इस प्रकृति का संतुलन मुझसे ही बन पाता है ||

मानव ने निज स्वार्थ की खातिर मुझको यों काटा है |
दूर दूर तक नज़र नहीं पत्ता मेरा आता है ||

जब मानव बच्चा होता है, अक्ल का कच्चा होता है |
खेल खिलोनों से मेरे अपना दिल बहलाता है ||

जब उसके चलने की इच्छा तीब्र बहुत होती है |
तब मेरी काठी पे चढ़ कर आगे को बड़ जाता है ||

जब वोह पढने लिखने के कुछ लायक हो जाता है |
मेरे कागज़ पे लिख-पढ़ कर ज्ञानवान बन जाता है ||

फिर एक दिन वो अपने काम काज पर जाता है |
मेरी कुर्सी पे तन कर सब पर रौब दिखाता है ||

जब भी उसको  भूख सताती पास मेरे आता है |
भूखा मानव मीठे-मीठे फल मुझ से ही पाता है ||

जब उसके बुढेपन में साथ नहीं देते है पाँव |
तब मेरी डंडी को लेकर अंतिम समय बिताता है ||

एक दिन आता है फिर जब मौत उसे आती है |
चिता मे मुझसे जल कर धरती में मिल जाता है ||

मेरा मानव का साथ यही ख़त्म नहीं होता है |
मेरी लकड़ी का टुकड़ा उसकी फोटो मे जड़ जाता है ||

इतना सब कुछ मुझे से लेकर शर्म नहीं खाता है |
अपने पूरे जीवन मे एक पेढ़ नहीं लगा पाता है ||

हे मानव ! सुन इस प्रकृति का ना तुम चक्र बिगाड़ो|
रहो हमारे साथ जब तक सूरज आता जाता है ||

मैं जो नहीं रहा यहाँ तो ना तेरा अस्तित्व रहेगा |
इतनी छोटी बात धरा का श्रेष्ट्र नहीं समझ पाता है ||
मैं एक पेड़ हूँ मानव से मेरा सदियों का नाता है |

-अभिषेक

Tuesday, November 23, 2010

जब भी मिला वो

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जब भी मिला वो हमने फासला रक्खा
यूँ जिंदगी से दुश्मनी का सिलसिला रक्खा

लडखडाये कदम जब जिंदगी की राह में
तुझको याद करके हौसला रक्खा

टूट कर टुकड़े-2 हो गया होता
तेरी यादों ने दिल को सिला रक्खा

मुद्दतों नहीं मिला मुझे वो मगर
ख्वाबों में आने-जाने का सिलसिला रक्खा

इन्तजार में तेरे सोए ना उम्र भर 
मरने के बाद आखों को खुला रक्खा

-अभिषेक
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Wednesday, October 13, 2010

कुछ गम है जो कभी भुलाये नहीं जाते


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कुछ गम है जो कभी भुलाये नहीं जाते
जाते है अपने छोड़ के पराये नहीं जाते

जो मिले हो मोहब्बत की सक्त राहों में
जख्म ऐसे ज़माने को दिखाए नहीं जाते

जो बयां करे ज़माने को उसकी रुसवाई
अश्क ऐसे पलकों पे लाये नहीं जाते

जो  जख्म उनको दे और दर्द तुमको
तीर ऐसे बातों के चलाये नहीं जाते

जो बिगड़ते है शक की बातों से
रिश्ते ऐसे फिर बनाये नहीं जाते

जो टूटते है टकराके हकीकत से 
ख्वाब ऐसे फिर सजाये नहीं जाते

हीर राँझा तो गुज़ारा हुआ जमाना है 
आशिक ऐसे इस ज़माने में पाए नहीं जाते

-अभिषेक "अनन्त"
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Saturday, October 9, 2010

जगह जगह मौत का सामान बिकता है

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जगह जगह मौत का सामान बिकता है
ये कलयुग है यहाँ इंसान बिकता है

बेटे कहाँ होते है ऐसे आज कल
जिनको माँ बाप में भगवान दिखता है

इंसान इंसान को है क़त्ल कर रहा
इंसान की शक्ल में हैवान दिखता है

आके आपनी आगोस में छुपाले मुझे माँ
देख तेरे बेटे का इमान बिकता है

रुपया पैसा मंदिरों में चड़ा रहे है लोग
कागज के टुकडों में क्या भगवान बिकता है

बहुत दूर आगया तू चन्द सिक्को की खातिर
संभल "अनंत" तेरा अरमान बिकता है

 -अभिषेक "अनन्त"
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Saturday, September 25, 2010

मुहब्बत का मैंने वो मक़ाम पा लिया

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मुहब्बत का मैंने वो मक़ाम पा लिया 
मिले उसको रोशनी, सो खुद को जला लिया

हम खाक है और वो है सितारों का हकदार
मिले उसको बुलंदी, सो खुद को मिटा लिया

जिन्दगी ने तोहफे में दिए कुछ फूल कुछ कांटे  
काँटों पे सोये हम, उसे फूलों पे बिठा लिया

करता भी क्या उस घर का जिस में नहीं है वो 
इसलिए "अनन्त" मैंने घर को जला दिया

-अभिषेक "अनन्त"
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Friday, September 24, 2010

सोच

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वक़्त की तरह मैं चुपचाप चल रहा हूँ
बर्फ का टीला हूँ,  बूंद बूंद गल रहा हूँ

राख है जो दिखती है बाहर से सभी को
अन्दर से अंगार हूँ, अन्दर मैं जल रहा हूँ

क़त्ल करके देख लो कर पाओ जो मुझको
मैं तो एक ख्वाब हूँ, आँखों में पल रहा हूँ

मिट्टी का नहीं हूँ जो मिट जाऊंगा में कल
मैं कल भी रहूँगा, और मैं कल भी रहा हूँ

चले जाते है इंसान सब छोड़ कर के युं
मैं तो उनकी  सोच हूँ, जिन्दा ही रहा हूँ

-अभिषेक 
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Sunday, September 19, 2010

श्री शिव सागर शर्मा जी की कवितायेँ

आज मैं आप लोगों को आज के युग के श्रंगार रस के कवि श्री शिव सागर शर्मा जी की कुछ रचनाएँ सुनाने जा रहा हूँ | मैं जब भी श्री शिव सागर जी को सुनता हूँ तो मुझे श्रंगार रस के श्रेष्ट कवि श्री बिहारी जी की स्मृति आती है जिन्हें में अपने स्कूल के दिनों में पड़ा करता था |
तो यहाँ हैं श्री शिव सागर जी की पहली रचना "ताजमहल" जो बहुत ही प्रसिद्ध हुई है :



वैसे तो कविता का एक एक शब्द मुझे पसंद है पर मेरी सबसे पसंदिता पंक्ति है "चांदनी रात में ताज के फर्श पर यूँ न टहलो ये मीनार हिल जाएगी " 

एक और इनकी रचना जो मुझे बहुत पसंद है आपको सुनवाता हूँ "नैना कज़रा बिना कटार "

 

Thursday, August 19, 2010

तूँ मेरी प्रेम ग़ज़ल है

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तूं मेरे जीवन की है आस, तुझे रक्खूगा दिल के पास 
तूं मेरी प्रेम ग़ज़ल है, तूं मेरी प्रेम ग़ज़ल है

तुम्हे सोचूं, तुम्हे देखू, तुम्हारे गीत में गाऊं
तुम्ही तो हो जीवन का राग, तुम्ही से है ये मेरे दिन रात 
तूं मेरी प्रेम ग़ज़ल है, तूं मेरी प्रेम ग़ज़ल है

जो आज हुए हम दूर, ये है प्यार का एक दस्तूर
कल फिर से होगे पास, हमारा जनम-जनम का साथ 
तूं मेरी प्रेम ग़ज़ल है, तूं मेरी प्रेम ग़ज़ल है

जो आज नहीं मैं पास, तो होती हो तुम क्यों उदास 
करूँगा सात समंदर पार, मिलूँगा तुमसे मेरे दिलदार 
तूं मेरी प्रेम ग़ज़ल है, तूं मेरी प्रेम ग़ज़ल है 

तूं मेरे जीवन की है आस, तुझे रक्खूगा दिल के पास 
तूं मेरी प्रेम ग़ज़ल है, तूं मेरी प्रेम ग़ज़ल है 

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यहाँ आप मेरी ये कविता मेरी आवाज़ मैं सुन सकते है | ये मेरा नया प्रयोग है, आशा है अच्छा लगेगा | 

-अभिषेक 

Sunday, August 15, 2010

आज का दौर

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इस हादसों के दौर में हम चकनाचूर हो गए
जब से अपनी माँ के आँचल से दूर हो गए

बहुत मुश्किल न था हमारा मशहूर होना यहाँ
हमने जमीर बेंचा और हम मशहूर हो गए

कोई काम नहीं आता एक दूसरे के यहाँ 
आज हम सब देखो कितने मगरूर हो गए

बेटियों को बाप ने ये कह कर जहर दिया 
माफ़ करना हमको हम तो मजबूर हो गए 
 
दह्शदगर्दी छाई है मेरे हर एक शहर में
सुना है अमन के फ़रिश्ते शहरों से दूर हो गए

इस हादसों के दौर में हम चकनाचूर हो गए
जब से अपनी माँ के आँचल से दूर हो गए
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- अभिषेक  

Saturday, August 14, 2010

मेरी कुछ छोटी-छोटी पंक्तियाँ

1).
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उजाले तेरी यादों के अपनी आँखों में समाये,
इस सफ़र में दिये तेरी यादों के जलाये
चले आये है तेरे शहर से बहुत दूर अब,
क्या फर्क पड़ता है इधर जाएँ या उधर जाएँ
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2).
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कोई कहता है की हम यहाँ मंदिर बनायेंगे,
कोई कहता है की हम यहाँ मस्जिद बनायेंगे
अरे मंदिर और मस्जिद तो पहले ही था मेरा देश,
ये तुले है कि ये इसे जहन्नुम बनायेंगे
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-अभिषेक

Sunday, July 18, 2010

एक दिन वो था जब हम भी मशहूर थे

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एक दिन वो था जब हम भी मशहूर थे 
मस्त थे मद की मस्तानी में चूर थे 

खोये रहते थे  रात दिन किसी के ख्यालों में 
किसी की नशीली आँखों के नूर थे
एक दिन वो था जब हम भी मशहूर थे  
 
अब आँख खुली तो जाना प्यार क्या होता है 
वरना पहले तो  आँखों के होते हुए भी सूर थे 
एक दिन वो था जब हम भी मशहूर थे 
 
बहुत दूर था काफिला मेरा मंजिले मुहब्बत से 
प्यार तो छोडो प्यार की एक बूँद से भी दूर थे 
एक दिन वो था जब हम भी मशहूर थे 
 
अब नहीं रही शानो शौकत हमारी तो जाना है 
क्यों हम उनके लिए कभी कोयले में कोहनूर थे 
एक दिन वो था जब हम भी मशहूर थे 
 
नाम लेकर निकालते है  अब अपनी महफ़िल से
वो जिनके लिए हम कभी उनके प्यारे हुज़ूर थे 
एक दिन वोह थे जब हम भी मशहूर थे 
मस्त थे मद की मस्तानी में चूर थे 

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-अभिषेक   

Tuesday, July 13, 2010

हर दिन कुछ न कुछ खास होता है

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हर दिन कुछ न कुछ खास होता है,
कोई कभी दूर तो कभी दिल के पास होता है
मत हारना तुम कभी इन कठनाइयों से,
क्योंकि ग़मों में भी कुछ खुशियों का साथ होता है
हर दिन कुछ न कुछ खास होता है 

वक़्त तो मौसम की तरह है दोस्त,
तूँ क्यों इसकी मार से उदास होता है
संघर्ष करता है जो कठनाइयों से,
वही तो जिन्दगी की परीक्षा में पास होता है
हर दिन कुछ न कुछ खास होता है

कोई नहीं रहता उम्र भर किसी के साथ,
उजड़े हुए चमन में कहाँ परिंदों का वास होता है
चले जाते है लोग छोड़ कर ये भरी दुनिया,
मगर उनकी मीठी यादों का साया हमारे साथ होता है

हर दिन कुछ न कुछ खास होता है,
कोई कभी दूर तो कभी दिल के पास होता है
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-अभिषेक 

Friday, July 9, 2010

दूरियां

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इस
रंग रूप के मौसम में सब फीका-फीका लगता है
तुम दूर-दूर जो बैठे हो जग रूठा-रूठा लगता है

जब हाँथ पकड़ तुम चलते थे सब कुछ सतरंगी हो जाता था
अब साथ नहीं जो तुम मेरे सब फीका-फीका लगता है

जब याद तुम्हारी आती है मन मेरा भारी हो जाता है
कुछ याद नहीं रहता मुझको दिल टूटा-टूटा
लगता है


जब तुम थे मेरे पास तो जैसे दुनिया मेरी मुट्ठी में 
अब पास नहीं जो तुम मेरे सब छूटा-छूटा लगता है

जो तुम आजाओ पास मेरे दिल खिल जाये सब मिल जाये
ये सोच भी लेता हूँ तो सब कुछ पहले जैसा लगता है

इस रंग रूप के मौसम में सब फीका-फीका लगता है
तुम दूर-दूर जो बैठे हो जग रूठा-रूठा लगता है



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-अभिषेक