मैं एक पेड़ हूँ मानव से मेरा सदियों का नाता है |
जब से उसका अस्तित्व हुआ मुझसे प्यार पाता है ||
मैं ही इस धरती को हरदम प्राण वायु देता हूँ |
इस प्रकृति का संतुलन मुझसे ही बन पाता है ||
मानव ने निज स्वार्थ की खातिर मुझको यों काटा है |
दूर दूर तक नज़र नहीं पत्ता मेरा आता है ||
जब मानव बच्चा होता है, अक्ल का कच्चा होता है |
खेल खिलोनों से मेरे अपना दिल बहलाता है ||
जब उसके चलने की इच्छा तीब्र बहुत होती है |
तब मेरी काठी पे चढ़ कर आगे को बड़ जाता है ||
जब वोह पढने लिखने के कुछ लायक हो जाता है |
मेरे कागज़ पे लिख-पढ़ कर ज्ञानवान बन जाता है ||
फिर एक दिन वो अपने काम काज पर जाता है |
मेरी कुर्सी पे तन कर सब पर रौब दिखाता है ||
जब भी उसको भूख सताती पास मेरे आता है |
भूखा मानव मीठे-मीठे फल मुझ से ही पाता है ||
जब उसके बुढेपन में साथ नहीं देते है पाँव |
तब मेरी डंडी को लेकर अंतिम समय बिताता है ||
एक दिन आता है फिर जब मौत उसे आती है |
चिता मे मुझसे जल कर धरती में मिल जाता है ||
मेरा मानव का साथ यही ख़त्म नहीं होता है |
मेरी लकड़ी का टुकड़ा उसकी फोटो मे जड़ जाता है ||
इतना सब कुछ मुझे से लेकर शर्म नहीं खाता है |
अपने पूरे जीवन मे एक पेढ़ नहीं लगा पाता है ||
हे मानव ! सुन इस प्रकृति का ना तुम चक्र बिगाड़ो|
रहो हमारे साथ जब तक सूरज आता जाता है ||
मैं जो नहीं रहा यहाँ तो ना तेरा अस्तित्व रहेगा |
इतनी छोटी बात धरा का श्रेष्ट्र नहीं समझ पाता है ||
मैं एक पेड़ हूँ मानव से मेरा सदियों का नाता है |
-अभिषेक