शब्दों के नगीने जड़ा करता हूँ;
जिंदगी पर गजल कहा करता हूँ।
उसको पाना खुद को खोना है;
कुछ फ़क़ीरों से सुना करता हूँ।
जहाँ तक नजर जाये नजर आये;
उसको ही प्यार कहा करता हूँ।
मजहब तो मुहब्बत सिखाता है;
बस किताबों में पढ़ा करता हूँ।
रोज मर-मर के यूँ जीना कैसा;
रोज जी-जी के मरा करता हूँ।
जो सब कहते हैं वो मैं सुनता हूँ;
और फिर मन की किया करता हूँ।
शब्दों के नगीने जड़ा करता हूँ;
जिंदगी पर गजल कहा करता हूँ।
-अभिषेक खरे
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